खबरनई दिल्ली:- ऐसा नहीं है कि SGPC के गठन से पहले पंजाब में अलगाववाद की चिंगारी पहले कभी नहीं फूटी इससे पहले भी छोटे मोटे कई आंदोलन और जंगे हुई लेकिन उनका कोई खास महत्व नहीं निकला। 9 जनवरी 1915 को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गोपाल कृष्ण गोखले के बुलाने पर महात्मा गांधी भारत आए और शांति पूर्ण तरीके से आंदोलन करके अंग्रेजों से कई छोटे बड़ी शर्तें मनवाने लगे। यह तरीका सिखों को भी खुब भाया और सिखों ने भी अपनी पहचान और गुरूद्वारों को मुक्त करने के लिए हजारों, लाख की संख्या में शांतिपूर्ण आंदोलन करने शुरू कर दिए 1920 में इन्हीं छोटे बड़े आंदोलनों के नायकों को जोड़कार 175 सदस्यों की टीम एसजीपीसी बनाई गई ताकि सभी आंदोलन नायक एक मंच पर आ सकें और छोटे-छोटे आंदोलन एक महाआंदोलन बन सकें। जैसा की पिछले लेख में आपने पढ़ा। इन नायकों में कुछ नायक तो गांधी वादी थें और कुछ उग्र स्वभाव के संगठनों से एसजीपीसी में आए थे। पंजाब में छोटे-छोटे शांति आंदोलन चलते रहे और इसी गांधी वाद के आड़ में महंतों को मारकर, डराकर, भगाकर छोटे मोटे गुरूद्वारों पर एसजीपीसी वाले कब्जा करते रहे, और फिर आया 1925 जब कानूनी तौर पर सभी गुरूद्वारों पर एसजीपीसी का हक कायम हो गया, इसके बाद शुरू हुआ महंतों को मारकर, डराकर भगाना। 90 के दशक में अधिकांश गुरूद्वारों पर उदासीन सम्प्रदाय के महंतों का कब्जा था।
गुरूद्वारों पर कैसे हुआ महंतों का कब्जा
उदासीन सम्प्रदाय वैसे तो बहुत पुराना है लेकिन उदासीन सम्प्रदाय को पंजाब और हरियाणा आदि में ज्यादा विस्तार बाबा श्री चन्द्र जी के आने से हुआ। बाबा श्री चन्द्र जी सिख धर्म के संस्थापक श्री गुरु नानक देव जी महाराज के बेटे थे जिन्हें बाबा नानक देव ने लुप्त होते उदासीन सम्प्रदाय के पुनरुत्थान के लिए उदासीन बना दिया था। हिंदूओ के गुरूद्वारों में घुसने की शुरुआत होती है शेरे पंजाब महाराजा रणजीत के बाद। महाराज के मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने पूरे पंजाब पर कब्जा कर लिया उनके बेटे को पढ़ाई के बहाने लंदन भेज दिया गया ताकि दोबारा विद्रोह की कोशिश ना हो। महाराज रणजीत सिंह के बाद बेटों के अंग्रजों से मिल जाने के कारण पूरा सिख एम्पायर टूट सा गया अंग्रेजों ने पूरे पंजाब पर कब्जा पा लिया और गुरुद्वारों को अपने पर्सनल इस्तेमाल में लेने लगे खासकर राजनीतिक इस्तेमाल के लिए, क्योंकि गुरूद्वारे लोगों के इक्कठा होना का सबसे अच्छा स्थान था।
उदासीनों की अंग्रेज़ो को धमकीं और गुरूद्वारों में पूजा
उदासीन सम्प्रदाय के धूने लगभग लगभग पूरे देश में थे और इससे हजारों हिंदू भक्त व कई छोटे बड़े रियासत पूरे देश में जगह जगह पर जुड़े हुए थे। खासकर हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और यह वो राज्य है जहां से विद्रोह होना अंग्रेजी हुकूमत के लिए ख़तरनाक था। सभी धूनो से महंतों ने एलान कर दिया कि जल्द से जल्द अंग्रेजी सरकार गुरूद्वारों को मुक्त कर दे वरना हम जंग के लिए तैयार है। लगभग हर धूने के सैकड़ों हजारों लोग समर्थक थे और इसमें शामिल रियासतों को देखते हुए अंग्रेजों ने अपने पैर पीछे कर लिए, जिसके बाद उदासीन सम्प्रदाय के महंतों ने गुरूद्वारों को अपने कब्जे में लेकर पूजा व ग्रंथ साहिब का प्रतिदिन प्रकाश करना शुरू कर दिया। शुरुआत में तो यह सबको ठीक लगा लेकिन कुछ समय बाद सिखों को गुरूद्वारों में तीनों टाइम आरती और धुना बुरा लगने लगा जिसके बाद सिखों ने इसका विरोध करना शुरू किया। कुछ जगहों पर तो महंतों ने खुद ही गुरूद्वारे खाली कर दिए लेकिन कुछ जगह जहां दान ज्यादा आता था वहां मारपीट और बात हत्या तक भी पहुंच गई। यही विद्रोह आगे चलकर एसजीपीसी और अब खलिस्तान आंदोलन का रूप ले चुका है।
अगले भाग में हम आपको बताएंगे कैसे एसजीपीसी ने अलग सिखीस्थान देश की मांग की और किन कारणों से यहां मांग पूरी नहीं हो पाई।